लो दिन बीता लो रात गई, क्या है मेरी बारी में : हरिवंशराय बच्चन

क्या है मेरी बारी में।

जिसे सींचना था मधुजल से, सींचा खारे पानी से,
नहीं उपजता कुछ भी ऐसी विधि से जीवन-क्यारी में.
क्या है मेरी बारी में।

आंसू-जल से सींच-सींचकर, बेलि विवश हो बोता हूं,
स्रष्टा का क्या अर्थ छिपा है, मेरी इस लाचारी में।
क्या है मेरी बारी में।

टूट पडे मधुऋतु मधुवन में, कल ही तो क्या मेरा है,
जीवन बीत गया सब मेरा, जीने की तैयारी में..
क्या है मेरी बारी में
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लो दिन बीता, लो रात गई

सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा, डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था, दिन में होगी कुछ बात नई
लो दिन बीता, लो रात गई

धीमे-धीमे तारे निकले, धीरे-धीरे नभ में फ़ैले,
सौ रजनी सी वह रजनी थी,
क्यों संध्या को यह सोचा था, निशि में होगी कुछ बात नई,
लो दिन बीता, लो रात गई

चिडियाँ चहकी, कलियाँ महकी, पूरब से फ़िर सूरज निकला,
जैसे होती थी, सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था, होगी प्रात: कुछ बात नई,
लो दिन बीता, लो रात गई
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इन कविताओं का विडियो देखें : 
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