"खा बनिये गुड़ तेरा ही है" -ये कहावत कैसे शुरु हूई?

एक ठाकुर रात में चुपके से एक बनिये की दुकान से गुड़ ले आया और सुबह जाकर उसी बनिये से बोला कि लो साहब! गुड़ मोल ले लो।

बनिये ने परीक्षा के बहाने गुड़ चखते हुए एक डली उसमें से उठाकर खायी और इस प्रकार चखने के बहाने वो बनिया गुड़ खाता जा रहा था।

तब वो ठाकुर कहने लगा कि खा गुड़ तेरा ही-गुड़ खाता जा भले ही, यह है तो तेरा ही।

अर्थात् मेरे को तो जितना मूल्य (पैसा) मिलेगा, वो मुफ्त में ही मिलेगा।

मेरे घर से क्या जायेगा? सेठ अपनी जानकारी में दूसरों का गुड़ खा कर मुफ्त में लाभ ले रहा है और गुड़ को खा कर उसका वजन भी कम कर रहा है जिससे पैसे भी ज्यादा देने नहीं पड़ें,बच जायें परन्तु यह खर्चा भी उसी का हो रहा है।



इसी प्रकार जब किसी को कोई चीज मुफ्त में मिलती है तो वो राजी होकर उसका खूब उपभोग करता है; परन्तु यह भी है तो उसी का। इसलिये कहा जाता है "खा बनिये, गुड़ तेरा ही है..!"

उसको पहले किये हुए पुण्य-कर्मों के फलस्वरूप वो चीज मिली है। वो जितना उपभोग करेगा, सुख भोगेगा, उतना पुण्य खर्च उसी का होगा।
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